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Thursday 4 March 2021

MID DAY MEAL: A GAME CHANGER

सरकारी विद्यालय, मध्याह्न भोजनःलौटाता गुरूकूल परंपर 
                                  
               पुरानी गुरूकूल परंपरा में छात्र कठिन परिश्रम कर ज्ञान प्राप्त करते थे,ज्ञान के साथ-साथ गुरू के आश्रम में अन्य व्यावहारिक एवं सामाजिक ज्ञान भी बच्चों को दिया जाता था। छात्र पढ़ाई के अलावा अपनी दैनिक दिनचर्या तथा सारे निजी कार्य स्वयं करते थे। आश्रम के आचार्य कोई भी रणनीतिक कार्य सभी छा़त्रों के सलाह मशविरा से किया करते थे और छात्रों की टोली विभिन्न समूहों में बंटकर दिए गए जवाबदेही का निर्वाह्न करते थे।
                                           
                                         कालान्तर में आधुनिक शिक्षा और सुविधायुक्त घर के करीब बच्चों को शिक्षित करने की परंपरा प्रचलित हुई जिसमें माता-पिता बच्चों के प्रति ज्यादा जागरूक हुए जिसका परिणाम हुआ कि बच्चे माता-पिता और विद्यालय पर ज्यादा निर्भर रहने के कारण मानसिक और शारीरिक तौर पर वास्तविक समस्याओं को झेलने में असमर्थ महसूस करते हैं।अच्छी नौकरी और अच्छे नंबर प्राप्त करने की होड़ में बच्चेअपनी जड़ों से दूर होते चले गए। खुद को आगे बढ़ाने की होड़ से आपसी सौहार्द,सहभागिता तथा सामाजिक-पारिवारिक जिम्मेदारी की भावना खत्म हो चुकी है।

                                        सामाजिक विशेषज्ञों को पुनः किताबी ज्ञान को व्यावहारिक ज्ञान के साथ जोड़ने की आवश्यकता महसूस हुई, विभिन्न प्रकार के व्यावसायिक पाठ्यक्रमों को शैक्षणिक विषयों में शामिल किया गया पर ये व्यावसायिक पाठ्यक्रम कुछ और नहीं बल्कि उसी व्यावहारिक ज्ञान को नए आयामों के साथ जोड़कर छात्रों को व्यावहार कुशल बनाने का प्रयास है।
 
                                           निजी विद्यालय पाठ्यक्रम,आधुनिकता और तकनीकी चकाचौंध के मामले में सरकारी विद्यालयों से काफी आगे हैं लेकिन ये बच्चों को भावनात्मकता से कितना जोड़ पाते हैं यह बढ़ती सामाजिक दूरी,तनाव,डीप्रेशन और अन्तर्मुखी व्यक्तित्व का फैलाव एक उदाहरण मात्र है। इसके उलट सरकारी विद्यालय आज भी सभी के लिए सहज उपलब्ध,सुगम और सहअस्तित्व के सिद्धान्त पर छात्रों के साथ-साथ अभिभावक की सहभगिता को भी स्वीकारता है। यही वजह है कि सरकारी विद्यालयों में विद्यालय शिक्षा समिति,बाल संसद एवं मीना मंच जैसी कई स्वनियंत्रित एवं संचालित प्रणालियां विकसित की गई है। इसका मकसद विद्यालय के शिक्षण माहौल को बेहतर एवं पारदर्शी बनाना,छात्रों के बीच सहभागिता की भावना एवं उच्च आचरण के लिए प्रेरित करना है।
                                      सरकारी विद्यालयों में 2005 से मध्याह्न भोजन योजना को संगठित तौर से प्रारंभ किया गया है। मध्याह्न भोजन संचालन की जिम्मेदारी विद्यालय के प्रधानाध्यापक की होती है लेकिन प्रबंधन विद्यालय शिक्षा समिति की देखरेख में किया जाता है। पोषण की प्रतीपूर्ती के लिए प्रतिदिन बिहार के 70 हजार 238 विद्यालयों में 1 करोड़ 30 लाख बच्चों को 1 लाख 68 हजार रसोईया खाना खिलाते हैं। बच्चों को सभी पोषक तत्व समुचित मात्रा में मिले इसके लिए प्रतिदिन का अलग-अलग मेन्यु निर्धारित है। छात्रों का स्वास्थ्य परीक्षण,डीवर्मिंग,आयरन-फोलिक की गोली का वितरण बिना किसी भेद-भाव के किया जाता है। गुरू-शिष्य परंपरा के तहत ऐसी जवाबदेही आश्रम के ऋषि-मुनियों की रहती थी। 

                                                       विद्यालय भ्रमण के दौरान आप कई विद्यालयों में शिक्षिकाओं एवं शिक्षकों को खाना परोसते एवं खड़े होकर बच्चों को खाना खिलाते देख सकते हैं। बच्चे कतारबद्ध हो कर मध्याह्न भोजन ग्रहण करते हैं तथा खुद अपनी थाली धो कर भंडारगृह में सुव्यवस्थित ढंग से रखते हैं। यह हमारी पुरानी गुरूकुल व्यवस्था की अगली कड़ी ही तो है। 
                                                यूनीसेफ एवं मध्याह्न भोजन योजना के साझा प्रयास से सरकारी विद्यालयों में अंकुरण ( पोषण वाटिका) परियोजना प्रारंभ की गई है। इस परियोजना के अन्तर्गत विद्यालय के खाली अनुप्युक्त जगह पर मौसमी सव्जी की खेती विद्यालय के छात्रों एवं शिक्षकों की सहभागिता से किया जाता है। इसके उपजाये सब्जी बच्चों को मध्याह्न भोजन में परोसा जाता है। इस परियोजना से बच्चों में सहभागिता के साथ खेती-बाड़ी से संबंधित ज्ञान भी प्राप्त हो रहा है। इस कार्यक्रम में तकनीकी सहायता राजेन्द्र कृषि विद्यालय,पूसा,बिहार कृषि विश्वविद्यालय,सबौर एवं जिला के सभी कृषि विज्ञान केन्द्र कर रहे हैं। इस कार्यक्रम को जिला कृषि विभाग,उद्यान विभाग तथा कृषि सलाहकार के संयुक्त प्रयास से प्रसारित किया जा रहा है। 
 

         राजीव झा 
 जिला कार्यक्रम प्रबंधक 
 मध्याह्न भोजन योजना,सीतामढ़ी